परिचय
मध्यप्रदेश में दलहनी फसलों के स्थान पर सोयाबीन के क्षेत्रफल में वृद्धि होने से दलहनी फसलों का रकबा घट रहा है। साथ-साथ अरहर फसल का क्षेत्र उपजाऊ समतल जमीन से हल्की ढालू, कम उपजाऊ जमीन पर स्थानांतरित हो रहा है जिससे उत्पादन में भारी कमी हो रही है। परंतु अरहर फसल की व्यापक क्षेत्रों के अनुकुल उच्च उत्पादन क्षमतावाली उकटारोधी प्रजातियों के उपयोग करने से उत्पादकता में होने वाले उतार-चढाव में कमी तथा उत्पादकता में स्थायित्व आया है। सिंचाई, उर्वरक तथा कृषि रसायनों के प्रयोग के बारे में कृषकों की बढ़ती जागरूकता दलहन उत्पादकता बढाने मे सहायक सिद्ध हो रही है। सामायिक बुआई के साथ पर्याप्त पौधों की संख्या, राइजोबियम कल्चर व कवक नाषियों से बीजोपचार तथा खरपतवार प्रबंधन जैसे बिना लागत के अथवा न्यूनतम निवेष वाले आदान भी उत्पादकता की वृद्धि करते है। अरहर दाल के आसमान छूते भाव के कारण फिर से मध्यप्रदेष के किसानों का रूझान अरहर की खेती की ओर बढ़ रहा है।
भारत में दालें प्रोटीन के रूप में भोजन का एक अभिन्न अंग है। टिकाऊ कृषि हेतु मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करने एंव आहार तथा चारे के विभिन्न रूपों में उपयोग आदि दलहनी फसलों के लाभ हैं। अग्रिम पंक्ति प्रदर्षनो द्वारा यह स्पष्ट दर्षाया जा चुका है कि उन्नतषील उत्पादन प्रौद्योगिकी अपनाकर अरहर की वर्तमान उत्पादकता को दुगना तक किया जा सकता है। दलहनी फसलों के पौधों की जड़ों पर उपस्थित ग्रंथियाँ वायुमण्डल से सीधे नत्रजन ग्रहण कर पौधों को देती हैं, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। दलहनी फसले खाद्यान्न फसलों की अपेक्षा अधिक सूखारोधी होती है। खरीफ की दलहनी फसलों में तुअर प्रमुख है। मध्य प्रदेश में अरहर को लगभग 5.3 लाख हेक्टर भूमि में लिया जाता है जिससे औसतन 530.5 (2011-12) किलो प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। मध्यप्रदेश से अरहर की नई प्रजातियां जे.के.एम.-7, जे.के.एम.-189 व ट्राम्बे जवाहर तुवर-501, विजया आई.सी.पी.एच.-2671 (संकर) दलहन विकास परियोजना, खरगोन द्वारा विकसित की गई है। अरहर को सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसल के रूप में लगाने की अनुषंसा कर करीब एक से दो लाख हेक्टेयर क्षेत्र का रकबा मध्यप्रदेष में बढ़ाया जा सकता है। अरहर फसल के बाद में रबी फसल भी समय पर ली जा सकती है। अतः ये जातियां द्विफसली प्रणाली में उपयुक्त है।
हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चला कर तैयार करना चाहिये। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी:-
अरहर की फसल के लिए समुचित जल निकासी वाली मध्य से भारी काली भूमि जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 का हो उत्तम है। देशी हल या ट्रैक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई क व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्यवस्था करें।
जातियों का चुनाव:
बहुफसलीय उत्पादन पद्धति में या हल्की ढलान वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः
तालिका-1: अरहर की किस्मे (कम अवधि)
अरहर की किस्में/विकसितवर्ष | उपज क्वि./हे. | फसल अवधि | विशेषताऐं |
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उपास-120 (1976) | 10-12 | 130-140 | असीमित वृद्धिवाली, लाल दानेकी , कम अवधि मेंपकने वाली जाति |
आई.सी.पी.एल.-87 (प्रगति,1986) | 10-12 | 125-135 | सीमित वृद्धि की कम अवधिमेंपकती है। बीज गहरा लाल मध्यम आकार का होता है। |
ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 (2008) | 19-23 | 145-150 | असीमित वृद्धि वाली,लालदाने की , कम अवधि में पकने वाली, उकटा रोगरोधी जाति है। |
मध्यम गहरी भूमि मंे जहाँ पर्याप्त वर्षा होती हो और सिंचित एंव असिंचित स्थिति में मध्यम अवधि की जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः
तालिका-2 अरहर की किस्मे ( मध्यम अवधि)
अरहर की किस्में/विकसित वर्ष | उपज (क्वि/हे.) | फसल अवधि | विशेषताऐं |
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जे.के.एम.-7 (1996) | में 20-22 | 170-190 | असीमित वृद्धि वाली, भूरा-लाल दाना मध्यम आकार का होता है। यह उकटा रोधक जाति है। |
जे.के.एम.189 (2006) | में 20-22 अर्धसिंचित में 30-32 | 160-170 | असीमितवृद्धि वाली, हरी फल्ली काली धारियों के साथ, लाल-भूरा बड़ा दाना, 100 दानों का वजन 10.1 ग्राम व उकटा,बांझपन व झुलसा रोग रोधी एवं सूत्र कृमी रोधी एवं फली छेदक हेतु सहनषील, देरसे बोनी में भी उपयुक्त |
आई.सी.पी.-8863(मारुती,1986) | 20-22 | 150-160 | असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का भूरा लाल दाना होता है। यह उकटा रोधक जाति है। इस जाति में बांझपन रोग का प्रभाव ज्यादा होता है। |
जवाहर अरहर-4(1990) | 18-20 | 180-200 | असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना,फायटोपथोरा रोगरोधी |
आई.सी.पी.एल.-87119(आषा1993) | 18-20 | 160-190 | असीमित वद्धि वाली, मध्यम अवधि वाली बहुरोग रोधी(उकटा,बांझपनरोग) जाति है। मध्यम आकार का लाल दाना होता है। |
बी.एस.एम.आर.-853(वैषाली,2001) | 18-20 | 170-190 | असीमित वृद्धि वाली, सफेद दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी( उकटाव बांझपन रोग) |
बी.एस.एम.आर.-736(1999) | 18-20 | 170-190 | असीमित वद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना, मध्यम अवधि वाली, उकटा एवं बांझ रोगरोधक है। |
विजया आई.सी.पी.एच.-2671(2010) | 22-25 | 164-184 | असीमित वृद्धि वाली, फूल पीले रंग का घनी लाल धारियो वाली, फलियां हल्के बैंगनी रंग एवं गहरा लाल दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी (उकटाव बांझपन रोग) |
तालिका-3: उत्तर पूर्व मध्य प्रदेष हेतु उपयुक्त जांतियां (लंबी अवधि )
अरहर की किस्में/विकसित वर्ष | उपज क्वि/हे. | फसल अवधि | विशेषताऐं |
एम.ए-3 (मालवीय,1999) | 18-20 | 210-230 | असीमीत वृद्धि वाली, भूरे रंग का बड़ा दाना, सूखा एवं बांझपन रोग रोधी, म.प्र.के उत्तर-पूर्व भाग के लिए उपयुक्त |
ग्वालियर-3(1980) | 15-18 | 230-240 | सीधे बड़वार वाली, लाल बड़ा दाना, गिर्ध क्षेत्र के लिये उपयुक्त |
अंतरवर्तीय फसल:-
अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एंव अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी । मुख्य फसल में कीडों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीडों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्न अंतरवर्तीय फसल पद्धति मध्य प्रदेष के लिए उपयुक्त है।
बोनी का समय व तरीका:-
अरहर की बोनी वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यतः जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करें। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 60 से.मी. व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 70 से 90 से.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 15-20 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 25-30 से.मी. रखें।
बीज की मात्रा व बीजोपचारः-
जल्दी पकने वाली जातियों का 20-25 किलोग्राम एवं मध्यम पकने वाली जातियों का 15 से 20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टर बोना चाहिए। चैफली पद्धति से बोने पर 3-4 किलों बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम या वीटावेक्स 2 ग्राम $ 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लगावें।
निंदाई-गुडाईः-
खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने के पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है । नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है । नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है।
सिंचाईः-
जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढोतरी होती है।
पौध संरक्षण:-
अ. बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण:-
कीट:-
कीट नियंत्रणः-
कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है।
जब पौधे की पत्तियाँ खिरने लगे एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की हो जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिषत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए। उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विंटल/हेक्ट उपज असिंचित अवस्था में और 25-30 क्विंटल/हेक्ट उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है।
अरहर की जातियां, रोग एवं लगने वाले कीट
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