आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों की जगनी के नाम से जाने जानी वाली रामतिल एक तिलहनी फसल है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती लगभग 87हजार हेक्टेयर भूमि में की जाती है तथा 30हजार टन उत्पादन मिलता है। प्रदेश में देश के अन्य रामतिल उत्पादक प्रदेशों की तुलना से औसत उपज अत्यंत कम (343 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती मुख्य रूप से छिंदवाड़ा, बैतूल, मंडला, डिन्डौरी, कटनी, उमरिया एवं शहडोल जिलों में की जाती है। रामतिल के बीजों में 38-43 प्रतिशत तेल एवं 20से30प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा पायी जाती है। रामतिल की फसल को नमी के अभाव में अथवा विषम परिस्थितियों में अनुपजाऊ एवं कम उर्वराशक्ति वाली भूमि में भी उगाया जा सकता है। फसल भूमि का कटाव रोकती है। रामतिल की फसल के बाद उगाई जाने वाली फसल की उपज अच्छी आती है। मध्यप्रदेश में इसकी काश्त आदिवासियों द्वारा अधिकतर ढालू नुमा जनजातीय क्षेत्रांतर्गत सीमांत एवं उपसीमांत भूमि पर की जाती है। इसके अतिरिक्त रामतिल की खेती असिंचित अवस्थाओं में वर्षा आधारित परिस्थितियों में बिना आदानों के सीमित निवेश के साथ की जाती है जो इसकी उत्पादकता को प्रभावित करते है। उन्नत तकनीक के साथ अनुशंसित कृषि कार्यमाला अपनाते हुये काश्त करने पर रामतिल की फसल से 700-800किग्रा/हे0 तक उपज प्राप्त की जा सकती जहाँ पर ऐरा प्रथा समानतय प्रचलित है वहाँ पर इसकी खेती सरलता से की जा सकती है।
परिचय:-
खेत की तैयारी:-
इसकी खेती पड़ती एवं पर्वतीय मूमि में विगड़ी भूमि को सुधारते हुए करते हैं। अतः विषेष तैयारी की आवष्यकता नहीं होती। बोनी करने के लिए कम से कम जुताई की आवष्कता होती है।
अनुशंसित किस्में:-
प्रदेश में फसल की काश्त हेतु निम्नलिखित अनुसंशित उन्नत किस्मों को अपनाना चाहियेः-
क्र. | किस्म का नाम | विकसित स्थान | अनुसंशित वर्ष | उपज क्वि./हे. | विशेषताएं |
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1 | उटकमंड | 6.00 |
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2 | जे.एन.सी. - 6 | अनुसंधान केन्द्र छिन्दवाड़ा (म.प्र.) | 2002 | 5.00 से 6.00 |
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3 | जे.एन.सी. - 1 | अनुसंधान केन्द्र छिन्दवाड़ा (म.प्र.) | 2006 | 6.00 |
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4 | जे.एन.एस. - 9 | अनुसंधान केन्द्र छिन्दवाड़ा (म.प्र.) | 2006 | 5.5 से 7.0 |
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5 | जबीरसा नाईजर - 1 | बीरसा कृषि विश्वविद्यालय कानके, राँची झारखण्ड | 1995 | 5.00 से 7.00 |
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6 | बीरसा नाईजर - 2 | बीरसा कृषि विश्वविद्यालय कानके, राँची झारखण्ड | 2005 | 6.00 से 8.00 |
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7 | बीरसा नाईजर - 3 | बीरसा कृषि विश्वविद्यालय कानके, राँची झारखण्ड | 2009 | 6.00 से 7.00 |
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8 | पूजा | बीरसा कृषि विश्वविद्यालय कानके,राँची झारखण्ड | 2003 | 6.00 से 7.00, |
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9 | गुजरात नाईजर - 1 | नवसारी कृषि विश्वविद्यालय गुजरात | 2001 | 7.00 |
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10 | एन.आर.एस. - 96 -1 | नवसारी कृषि विश्वविद्यालय गुजरात | 4.5 से 5.5m |
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बुआई प्रबंधन:-
जैवउर्वरकों का उपयोग:-
पोषक तत्व प्रबंधन:-
सिंचाई एंव जल प्रबंधन:-
रामतिल की खेती खरीब के मौसम में पूर्णतः वर्षा आधारित की जाती है। वर्षाकाल में लम्बे समय तक वर्षा नहीं होने की स्थिति में अथवा सूखे की स्थिति निर्मित होने पर भूमि में नमी का स्तर कम होता है। भूमि में कम नमी की दशा का फसल की उत्पादकता पर विपरित प्रभाव पड़ता है। यदि फसल वृद्धि के दौरान इस तरह की स्थिति निर्मित होती है तो सिंचाई के साधन उपलब्ध होने पर सिंचाई करने से फसल से अच्छी उपज प्राप्त होती है।
नींदा प्रबंधन:-
अमरबेल का प्रबंधन:-
अमरबेल तना परजीवी पौधा है जो फसलों या वृक्षों पर अवांछित रूप से उगकर हानि पहुँचाता है। इस खरपतवार को रामतिल, सोयाबीन, प्याज, अरहर, तिल, झाड़ियों, शोभाकार पौधों एवं वृक्षों पर भी देखा जा सकता है। अमरबेल परजीवी पौधे में उगने के 25-30 दिन बाद सफेद अथवा हल्के पीले रंग के पुष्प गुच्छे में निकलते हैं। प्रत्येक पुष्प गुच्छ में 15-20 फल तथा प्रत्येक फल में 2-3 बीज बनते है। अमरबेल के बीज अत्यंत छोटे होते है जिनके 1000 बीजों का वजन लगभग 0.70-0.80 ग्राम होता है। बीजों का रंग भूरा अथवा हल्का पीला (बरसीम एवं लूसर्न के बीजों की जैसा) होता है। अमर बेल के एक पौधे से लगभग 50,000 से 1,00,000 तक बीज पैदा होते है। पकने के बाद बीज मिट्टी में गिरकर काफी सालों तक (10-20 साल तक) सुरक्षित पड़े रहते है तथा उचित वातावरण एवं नमी मिलने पर पुनः अंकुरित होकर फसल को नुकसान पहुँचाते है।
अमरबेल के संभावित क्षति:-
रामतिल में अमरबेल का एक पौधा प्रति 4 वर्गमीटर में होने पर 60-65 प्रतिशत से अधिक नुकसान पहुँचाता है। अमरबेल के प्रकोप से अन्य फसलों जैसे उड़द, मूंग में 30-35 प्रतिशत तथा लूसर्न में 60-70 प्रतिशत औसत पैदावार में कमी दर्ज की गई है।
अमरबेल के नियंत्रण की विधियाँ:-
उचित फसलचक्र अपनाकर:-
घास कुल की फसलें जैसे गेहूँ, धान, मक्का, ज्चार, बाजरा आदि में अमरबेल का प्रकोप नहीं होता है। अतः प्रभावित क्षेत्रों में फसल चक्र में इन फसलों को लेने से अमरबेल का बीज अंकुरित तो होगा परन्तु एक सप्ताह के अंदर ही सुखकर मर जाता है फलस्वरूप जमीन में अमरबेल के बीजों की संख्या में काफी कमी आ जाती है।
रासायनिक विधियाँ:-
विभिन्न दलहनी (चना, मसूर, उड़द, मूंग) तिलहनी (रामतिल, अलसी) एंव चारे (बरसीम, लूसर्न) की फसलों में पेन्डीमेथालिन 30 प्रतिशत (ईसी) स्टाम्प नामक शाकनाशी रसायन को 1.0 किग्रा व्यापारिक मात्रा प्रति एकड़ की दर से बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व छिड़काव करने से अमरबेल का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है। नये रसायन पेन्डीमेथालिन (स्टाम्प एक्स्ट्रा) 38.7 प्रतिशत (सीएस) 700 ग्राम प्रति एकड़ की व्यापारिक मात्रा का प्रयोग अमरबेल नियंत्रण पर काफी प्रभावी पाया गया है। इन रसायनों की उपरोक्त मात्रा को 150 लीटर पानी में घोल बनाकर ’’फ्लैटफैन’’ नोजल लगे हुये स्पे्रयर द्वारा समान रूप से प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। इस शाकनाशी के प्रयोग से अमरबेल के साथ-साथ दूसरे खरपतवार भी नष्ट हो जाते है। यदि अमरबेल का प्रकोप पूरे खेत में न होकर थोड़ी-थोड़ी जगह पर हो तो इसके लिए ’’पैराक्वाट’’ अथवा ’’ग्लायफोसेट’’ नामक शाकनाशी रसायन का 1 प्रतिशत घोल बनाकर प्रभावित स्थानों पर छिड़काव करने से अमरबेल पूरी तरह नष्ट हो जाता है।
बुआई के पूर्व-
क्र. | दवा का नाम | दवा की व्यापारिक मात्रा/हेक्टेयर | उपयोग का समय | उपयोग करने की विधि |
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1. | ग्लाइफोसेट | 2500 मिली लीटर | पहली वर्षा के 15-20 दिन बाद एवं बोनी के 15 दिन पूर्व | फ्लैटफेन नोजल लगाकर 500 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से घोल बनाकर समान रूप से छिड़काव करें। |
खड़ी फसल में-
क्र. | दवा का नाम | दवा की व्यापारिक मात्रा/हेक्टेयर | उपयोग का समय | उपयोग करने की विधि |
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1. | पेन्डीमेथालिन -38.7 % | 750 मिली लीटर | बोनी के तुरंत बाद एवं फसल अंकुरण से पूर्व | फ्लैटफेन नोजल लगाकर 500 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से घोल बनाकर समान रूप से छिड़काव करें। |
रोग प्रबंधन:-
रोग प्रबंधन की विधियाँ:-
रोग प्रबंधन हेतु अनुशंसाएँ -
क्र. | रोग का नाम | लक्षण | नियंत्रण हेतु अनुशंषित दवा | दवा की व्यापारिक मात्रा | उपयोग करने का समय एवं विधि |
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1 | सरकोस्पोरापर्णदाग | इस रोग में पत्तियों पर छोटे धूसर से भूरे धब्बे बनते हैं जिसके मिलने पर रोग पूरी पत्ती पर फैल जाता है तथा पत्ती गिर जाती है। | हेक्साकोनाजोल 5 प्रतिशत ई.सी. की | 2 मिलि लीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। | लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए। |
2 | आल्टरनेरिया पत्ती घब्बा | इस रोग में पत्तीयों पर भूरे, अंडाकार, गोलाकार एवं अनियंत्रित वलयाकार धब्बे दिखते हैं। | जीनेब | 0.2% दवा का छिड़काव रोग आने पर 15 दिन के अंतराल से करें। | लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए। |
3 | जड़ सड़न | तना आधार एवं जड़ का छिलका हटाने पर फफूंद के स्क्लेरोशियम होने के कारण कोयले के समान कालापन होता है। | कापर आक्सीक्लोराइड | 1 किग्रा/हे. की दर से छिड़काव करें। | लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए। |
4 | भभूतिया रोग (चूर्णी फफूंद) | रोग में पत्तियों एंव तनों पर सफेद चूर्ण दिखता है। | घुलनशील गंधक | 0.2 प्रतिशत का फुहारा पद्धति से फसल पर छिड़काव करें। | लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए। |
कीट प्रबंधन की विभिन्न विधियाँ:-
कीट प्रबंधन हेतु अनुशंसाएँ -
क्र. | रोग का नाम | लक्षण | नियंत्रण हेतु अनुशंषित दवा | दवा की व्यापारिक मात्र | उपयोग करने का समय एवं विधि |
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1 | रामतिल की इल्ली | रामतिल की इल्ली हरे रंग की होती है जिस पर जामुनी रंग की धारियाँ रहती है। पत्तीयाँ खाकर पौधे की प्रारंभिक अवस्था में ही पत्तीरहित कर देती हैं। | ट्राइजोफास 40 प्रतिशत ई.सी. | 800 मिलि. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। | लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए। |
2 | माहों कीट | माहो कीट के शिशु तथा प्रौढ़ पत्तीयों तथा तने पर चिपके रहकर पौधे से रस चूसते हैं जिससे उपज में कमी आती है। | इमीडाक्लोप्रिड | 0.3 मिलि लीटर मात्रा प्रति 1 लीटर पानी के मान से 600-700 लीटर पानी में अच्छी तरह से बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। | लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए। |
कटाई एंव गहाई:-
रामतिल की फसल लगभग 100-110 दिनों में पककर तैयार होती है। जब पौधों की पत्तियाँ सूखकर गिरने लगे, फल्ली का शीर्ष भाग भूरे एवं काले रंग का होकर मुड़ने लगे तब फसल को काट लेना चाहिये। कटाई उपरांत पौधों को गट्ठों में बाँधकर खेत में खुली धूप में एक सप्ताह तक सुखाना चाहिये उसके बाद खलिहान में लकड़ी /डंडों द्वारा पीटकर गहाई करना चाहिये
उपज एंव भण्डारण:-
अधिक उपज प्राप्त करने हेतु प्रमुख बिन्दु:-
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